गीत
यही बेरंग जीवन में हमेशा रंग भरती हैं सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं है इनकी वीरता को ये ज़माना जानता सारा ये शीतल सी नदी भी हैं,ये बन जाती हैं अंगारा ये तूफानों से लड़ती हैं नहीं लहरों डरती हैं सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं
हमेशा खून से ये सींचती सारी ही फुलवारी छुपा लेतीं हैं ये मन में ही अपनी वेदना सारी ये सौ -सौ बार जीती हैं ये सौ- सौ बार मरतीं हैं सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं
हवाएँ राह में इनके सदा काँटे बिछाती हैं मगर जो ठान लेती ये वही करके दिखातीं हैं ये मोती खोज लाती हैं जो सागर में उतरती हैं सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं
- सुनीता काम्बोज
२)
गीतिका [लवणी छंद ] दर्द गुलामी का लिख दूँ या ,आजादी का हाल लिखूँ कैसे कैसे कब कब बदली ,वक्त ने अपनी चाल लिखूँ कितनी बार हुई है घायल, धरती माँ मत पूछो तुम दुश्मन ने हैं कैसे कैसे ,बुन डाले ये जाल लिखूँ भ्रष्ट आचरण वाली बेलें, फैली हैं हर और यहाँ । किस कारण से अब बतलाओ ,देश हुआ खुशहाल लिखूँ समझ न आता कलम चलाऊँ ,किस किस और समस्या पर भूख गरीबी लिख डालूँ या ,सूखा बाढ़ अकाल लिखूँ बेटी है लाचार व बेबस, माँ की आँखें शंकित हैं । बता दामिनी के जख्मों को , कैसे मैं हर साल लिखूँ पैसे वाले रखते है अब , मुट्ठी में कानून यहाँ गद्दारो की कभी नहीं क्यों ,होती है पड़ताल लिखूँ कभी झौपडे गए उजाड़े, रो देती थी ये आँखें मजदूरों के घर रोटी ने कर दी थी हड़ताल लिखूँ कलम सुनीता लिखना चाहे ,सारी ही सच्चाई को रातोंरात हुए है कैसे ,अब वो मालोमाल लिखूँ
- सुनीता काम्बोज |